Bira 91 की कहानी बताती है कि कितना आसान है एक शानदार ब्रांड बनाना और कितना मुश्किल है उसे बनाए रखना। यह वही कहानी है जहाँ एक युवा-फ्रेंडली, कलरफुल और टैप-ऑन-ट्रेंडिंग क्राफ्ट बियर ने भारत के बार-पब कल्चर को नया वाइब दिया—और फिर कुछ फैसलों और रेगुलेटरी जटिलताओं ने उस पूरी कहानी को उल्टा सेक दिया।

Bira 91 की कहानी बताती है कि कितना आसान है एक शानदार ब्रांड बनाना और कितना मुश्किल है उसे बनाए रखना। यह वही कहानी है जहाँ एक युवा-फ्रेंडली, कलरफुल और टैप-ऑन-ट्रेंडिंग क्राफ्ट बियर ने भारत के बार-पब कल्चर को नया वाइब दिया—और फिर कुछ फैसलों और रेगुलेटरी जटिलताओं ने उस पूरी कहानी को उल्टा सेक दिया।

शुरुआत: क्राफ्ट बियर का भारतीय एडवोकेट

कहानी शुरु होती है Ankur Jain जैसे उद्यमी से जिसने विदेश में क्राफ्ट बियर ट्राई कर के सोचा—यह अनुभव इंडिया में क्यों नहीं है? 2007 में शुरू हुई Serena Beverage (बाद में B9 Beverage) ने पहले इम्पोर्ट और ट्रेडिंग से शुरुआत की। धीरे-धीरे टेस्टिंग, फीडबैक और कई यूरोप-यूएस टेस्‍टिंग के बाद 2013 में कंपनी ने ऑन-टैप सर्विंग पर जोर दिया।

लोगों को जो यूनिक अनुभव चाहिए था—हल्की, स्मूद, कम कड़वी और टेस्टी बियर—वो Bira ने दे दी। ब्रांड ने 9 महीने में लोगो, पैकेजिंग और नाम पर मेहनत की: बीरा (पंजाबी में बड़े भाई), 91 (इंडिया का कंट्री कोड) और बंदर वाला मस्कट जो मस्ती और शरारत का प्रतीक था।

ब्रांडिंग + मार्केटिंग = तेज़ी से ग्रोथ

Bira की सबसे बड़ी ताकत उसकी ब्रांडिंग थी। टारगेट स्पष्ट था—युवा, शहरी, पब-बार जाने वाला कंज्यूमर।

  • 1000+ बार और पब में पहले से मौजूद होना
  • 70% सेल बार-एंड-पब से; रिटेल बॉटल्स, फेस्टिवल्स और ICC पार्टनरशिप से बाकी
  • वर्ड-ऑफ-माउथ और कलरफुल, कूल पैकेजिंग—जो पुरानी बियर ब्रांड्स से अलग दिखती थी

नतीजा: मात्र कुछ ही सालों में Bira भारत की चौथी सबसे बड़ी बियर कंपनी बन गई। पर ब्रांडिंग ने जो ओपनिंग दी, उसने कंपनी के दूसरे महत्वपूर्ण हिस्सों की कमजोरी भी उजागर कर दी।

गलतियाँ जिन्हें अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए था

कमजोरियों का सिलसिला धीरे-धीरे बढ़ा—छोटी-छोटी गलतियाँ मिलीं और फिर एक बड़ा पाप हुआ। मुख्य बिंदु:

  1. ब्रूरी का अति-विस्तार: कंपनी ने एक नहीं बल्कि कई ब्रूवरी खोल दीं। पर सेल उस हिसाब से नहीं बढ़ी। ज़्यादा कैपेक्स और अंडर-यूटिलाइज़ेशन।
  2. ग्लोबल एक्सपेंशन जल्दबाजी: 24 देशों तक जाने की योजना पर मार्केटिंग और सपोर्ट कॉस्ट बढ़े, पर लॉन्च लोकल-सेंटर में मजबूत नहीं थे।
  3. उच्च कच्चा खर्च: यूरोप से इम्पोर्टेड मटेरियल और लॉजिस्टिक्स ने मार्जिन कम कर दिए।
  4. ब्रांड बर्नआउट और कॉम्पटीशन: जब एक नया सेगमेंट उभरता है, तो कॉम्पीटिटर्स भी तेज़ी से आ जाते हैं।
  5. वित्तीय डिसिप्लिन की कमी: लगातार फंडिंग पर निर्भरता; 20+ राउंड में लगभग ₹3,000 करोड़ उठे पर प्रॉफिट नहीं दिखा।

नाम बदलने का निर्णय और उसका घातक असर

सबसे बड़ा मोड़ आया जब कंपनी ने कॉर्पोरेट नाम बदलने का निर्णय लिया और “Private” हटाकर Public जैसा नाम कर दिया। यह तकनीकी मुद्दा नहीं, बल्कि रेगुलेटरी और ऑपरेशनल बम था।

कारण यह है कि अल्कोहल भारत में सेंट्रल नहीं बल्कि स्टेट सब्जेक्ट है। हर राज्य की अपनी लाइसेंसिंग, लेबलिंग और परमिशन की आवश्यकताएँ हैं। जब कंपनी का नाम बदल गया तो कई राज्यों ने कहा—यह नई कंपनी है, नया लाइसेंस लो, हर स्टेट में अलग- अलग लेबल चेक कराओ।

लाइसेंसिंग में 4–6 महीने लग गए। पुराना स्टॉक उस नाम पर था जो अब मौजूद नहीं था, और नया स्टॉक बिना लाइसेंस के नहीं बिक पाया। परिणाम सीधे तौर पर:

  • सेल लगभग शून्य
  • कर्मचारियों की सैलरी छह माह तक रुकी
  • वेंडर्स को भुगतान नहीं हुआ
  • नए इन्वेस्टर्स पिसी हुए, बड़े निवेशक जैसे BlackRock ने डील वापस ले ली

वित्तीय तस्वीर

कुछ वित्तीय संकेतक जो स्थिति स्पष्ट करते हैं:

  • 2021 टर्नओवर लगभग ₹442 करोड़
  • 2022 बढ़ कर ₹726 करोड़
  • 2023 टर्नओवर लगभग ₹824 करोड़
  • 2024 टर्नओवर गिर कर करीब ₹638 करोड़, और रिपोर्टेड नुकसान ₹748 करोड़ के आस-पास

कंपनी ने कुल मिलाकर सैकड़ों करोड़ का निवेश लिया, पर नेटवर्थ नेगेटिव हो गया। 200 से अधिक शेयरहोल्डर्स होने के कारण पब्लिक लिमिटेड नियम लागू हुए और यह कॉर्पोरेट कदम भी भारी पड़ गया।

मेस्सेज और बुनियादी सीख

यह केस बताता है कि ब्रांड बनाना आधा काम है; दूसरा आधा होता है सिस्टम, रेगुलेशन और इकॉनॉमिक्स। मुख्य सबक:

  1. कानूनी सलाह पहले: कोई बड़ा कॉर्पोरेट बदलाव (नाम, ओनरशिप, स्ट्रक्चर) करने से पहले कानूनी और रेगुलेटरी इम्पैक्ट का पूरा आकलन जरूरी है।
  2. स्लो एंड स्टेडी ग्रोथ: मार्केट पकड़ते ही तेजी से अंधाधुंध एक्सपैंशन जोखिम भरा है। कैपेक्स के साथ सेल-इकॉनॉमिक्स मैच करनी चाहिए।
  3. यूनिट इकॉनॉमिक्स पर फोकस: ब्रांड हिट हो गया तो भी प्रॉफिट न होने पर बिजनेस टिक नहीं सकता। मर्जिन, कच्चा माल और सप्लाई चेन की दक्षता जरूरी है।
  4. फंडिंग और स्टेकहोल्डर मैनेजमेंट: निवेश उठाना आसान है; वापस लौटाना कठिन। शेयरहोल्डर बेस और स्ट्रक्चर को समझ कर ही फैसला लें।
एक अच्छा ब्रांड मशाल की तरह होता है, पर बिजनेस चलाने के लिए मजबूत जड़ें, रेगुलेटरी समझ और वित्तीय अनुशासन चाहिए।

निष्कर्ष

Bira 91 ने भारतीय युवा कंज्यूमर को एक नया अनुभव दिया और ब्रांडिंग के मामले में बेजोड़ काम किया। पर ब्रांडिंग अकेले बिजनेस नहीं चलाती। कॉर्पोरेट स्ट्रक्चर, कानूनी अनुपालन और आर्थिक अनुशासन की कमी ने एक पॉपुलर ब्रांड को संकट में डाल दिया।

व्यापार करने वालों के लिए यह केस क्लियर मैसेज देता है: कूल ब्रांड बनाना जरूरी है, पर उसे कानूनी और वित्तीय हाइट में समालना उससे भी ज्यादा जरूरी है।

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